श्री महाराज जी की वाणी मुझपर कुछ ऐसा असर डालने लगी की मैं उन्हीं की भाषा में सोचने व रचना करने लगा, एक उदाहरण निम्नांकित है जिस से मेरी बात अधिक स्पष्ट हो जायगी-
जगद्गुरु अब मोकहुं अपनाव.
मिथ्याभिमान बसहि उर भीतर, किरपा करहु मिटाव.
जस नाटकु मैं करहूँ जग जाहिर, मोको वैसा बनाव.
छेड़त पल छिन माया तुम्हरी ओको तनिक समझाव.
अन्तः करण होत नित मैलो, तुम्हीं सुच्छ बनाव.
निष्ठुर भावहीन उर भीतर अपनी भक्ति जगाव.सुनहु कृपालु न आस आन ते, अब तुम्हीं अपनाव.
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